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*आज का प्रेरक प्रसंग*
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*💐👳🏼‍♀कबीर जी की पगड़ी👳🏼‍♀💐💐*

        *एक प्रसिद्ध किवंदती हैं। एक बार संत कबीर ने बड़ी कुशलता से पगड़ी बनाई। झीना- झीना कपडा बुना और उसे गोलाई में लपेटा। हो गई पगड़ी तैयार। वह पगड़ी जिसे हर कोई बड़ी शान से अपने सिर सजाता हैं। यह नई नवेली पगड़ी लेकर संत कबीर दुनिया की हाट में जा बैठे। ऊँची- ऊँची पुकार उठाई- 'शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! दो टके की भाई! दो टके की भाई!'*

      *एक खरीददार निकट आया। उसने घुमा- घुमाकर पगड़ी का निरीक्षण किया। फिर कबीर जी से प्रश्न किया- 'क्यों महाशय एक टके में दोगे क्या?' कबीर जी ने अस्वीकार कर दिया- 'न भाई! दो टके की है। दो टके में ही सौदा होना चाहिए।' खरीददार भी नट गया। पगड़ी छोड़कर आगे बढ़ गया। यही प्रतिक्रिया हर खरीददार की रही।*

       *सुबह से शाम हो गई। कबीर जी अपनी पगड़ी बगल में दबाकर खाली जेब वापिस लौट आए। थके- माँदे कदमों से घर- आँगन में प्रवेश करने ही वाले थे कि तभी... एक पड़ोसी से भेंट हो गई। उसकी दृष्टि पगड़ी पर पड गई। 'क्या हुआ संत जी, इसकी बिक्री नहीं हुई?'- पड़ोसी ने जिज्ञासा की। कबीर जी ने दिन भर का क्रम कह सुनाया। पड़ोसी ने कबीर जी से पगड़ी ले ली- 'आप इसे बेचने की सेवा मुझे दे दीजिए। मैं कल प्रातः ही बाजार चला जाऊँगा।'*

     *अगली सुबह... कबीर जी के पड़ोसी ने ऊँची- ऊँची बोली लगाई- 'शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! आठ टके की भाई! आठ टके की भाई!' पहला खरीददार निकट आया, बोला- 'बड़ी महंगी पगड़ी हैं! दिखाना जरा!'*

*पडोसी- पगड़ी भी तो शानदार है। ऐसी और कही नहीं मिलेगी।*

*खरीददार- ठीक दाम लगा  लो, भईया।*

*पड़ोसी- चलो, आपके लिए- सात टका लगा देते हैं।*

*खरीददार - ये लो छः टका। पगड़ी दे दो।*

    *एक घंटे के भीतर- भीतर पड़ोसी पगड़ी बेचकर वापस लौट आया। कबीर जी के चरणों में छः टके अर्पित किए। पैसे देखकर कबीर जी के मुख से अनायास ही निकल पड़ा-*

*सत्य गया पाताल में,*
          *झूठ रहा जग छाए।*
*दो टके की पगड़ी,*
        *छः टके में जाए।।*

   *यही इस जगत का व्यावहारिक सत्य है। सत्य के पारखी इस जगत में बहुत कम होते हैं। संसार में अक्सर सत्य का सही मूल्य नहीं मिलता, लेकिन असत्य बहुत ज्यादा कीमत पर बिकता हैं। इसलिए कबीर जी ने कहा-*

*'सच्चे का कोई ग्राहक नाही, झूठा जगत पतीजै जी।*

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महादानी कर्ण
*आज का प्रेरक प्रसंग*
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भगवान् कृष्ण ने भी कर्ण को सबसे बड़ा दानी माना है। अर्जुन ने एक बार कृष्ण से पूछा की सब कर्ण की इतनी प्रशांसा क्यों करते हैं? तब कृष्ण ने दो पर्वतों को सोने में बदल दिया और अर्जुन से कहा के इस सोने को गांव वालों में बांट दो। अर्जुन ने सारे गांव वालों को बुलाया और पर्वत काट-काट कर देने लगे और कुछ समय बाद थक कर बैठ गए।

तब कृष्ण ने कर्ण को बुलाया और सोने को बांटने के लिए कहा, तो कर्ण ने बिना कुछ सोचे समझे गांव वालों को कह दिया के ये सारा सोना गांव वालों का है और वे इसे आपस में बांट ले। तब कृष्ण ने अर्जुन को समझाया के कर्ण दान करने से पहले अपने हित के बारे में नहीं सोचता। इसी बात के कारण उन्हें सबसे बड़ा दानवीर कहा जाता है।


1.कवच और कुंडल : भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे कि जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं, वह युद्ध में अजेय रहेगा। दोनों ने मिलकर योजना बनाई और इंद्र एक विप्र के वेश में कर्ण के पास पहुंच गए और उनसे दान मांगने लगे। कर्ण ने कहा मांगों। विप्र बने इंद्र ने कहा, नहीं पहले आपको वचन देना होगा कि मैं जो मांगूगा आप वो दे देंगे। कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए। तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए।



एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाएं अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और विप्रवर को सौंप दिए। इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए। लेकिन कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ नीचे उतरकर भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा। तब इंद्र ने कर्ण को कवच कुंडल के बदले अमोघ अस्त्र दिया।


2.कुंती को दान में दिया वचन : एक बार कुंती कर्ण के पास गई और उससे पांडवों की ओर से लड़ने का आग्रह करने लगी। कर्ण को मालूम था कि कुंती मेरी मां है। कुंती के लाख समझाने पर भी कर्ण नहीं माने और कहा कि जिनके साथ मैंने अब तक का अपना सारा जीवन बिताया उसके साथ मैं विश्‍वासघात नहीं कर सकता।

तब कुंती ने कहा कि क्या तुम अपने भाइयों को मारोगे? इस पर कर्ण ने बड़ी ही दुविधा की स्थिति में वचन दिया, 'माते, तुम जानती हो कि कर्ण के यहां याचक बनकर आया कोई भी खाली हाथ नहीं जाता अत: मैं तुम्हें वचन देता हूं कि अर्जुन को छोड़कर मैं अपने अन्य भाइयों पर शस्त्र नहीं उठाऊंगा।'


3.कृष्ण ने ली दान की परीक्षा : जब महाराज युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ पर राज्य करते थे तब वे काफी दान आदि दिया करते थे। पांडवों को इसका अभिमान होने लगा। भीम व अर्जुन ने श्रीकृष्ण के समक्ष युधिष्ठिर की प्रशंसा शुरू की कि वे कितने बड़े दानी हैं। लेकिन कृष्ण ने उन्हें बीच में ही टोककर कहा- हमने कर्ण जैसा दानवीर कहीं नहीं देखा। पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई। तब कृष्ण ने कहा कि समय आने पर सिद्ध कर दूंगा।


कुछ ही दिनों बाद एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला, महाराज! मैं आपके राज्य में रहने वाला एक ब्राह्मण हूं और मेरा व्रत है कि बिना हवन किए कुछ भी नहीं खाता-पीता। कई दिनों से मेरे पास यज्ञ के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है। यदि आपके पास हो तो, मुझ पर कृपा करें, अन्यथा हवन तो पूरा नहीं ही होगा, मैं भी भूखा-प्यासा मर जाऊंगा।

युधिष्ठिर ने तुरंत कोषागार के कर्मचारी को बुलवाया और कोष से चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया। संयोग से कोषागार में सूखी लकड़ी नहीं थी। तब महाराज ने भीम व अर्जुन को चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया। लेकिन काफी दौड़- धूप के बाद भी सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाई। तब ब्राह्मण को हताश होते देख कृष्ण ने कहा, मेरे अनुमान से एक स्थान पर आपको लकड़ी मिल सकती है, आइए मेरे साथ।


ब्राह्मण यह सुनकर खुश हो गए। बोला कहां पर। तब भगवान ने अर्जुन व भीम का भी वेष बदलकर ब्राह्मण के संग लेकर चल दिए।। कृष्ण सबको लेकर कर्ण के महल में गए। सभी ब्राह्मणों के वेष में थे, अत: कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं। याचक ब्राह्मण ने जाकर लकड़ी की अपनी वही मांग दोहराई। कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, वहां भी सूखी लकड़ी नहीं थी।


ऐसे में ब्राह्मण निराश हो गया। अर्जुन और भीम प्रश्न-सूचक निगाहों से भगवान कृष्ण को ताकने लगे। लेकिन श्री कृष्ण अपनी चिर-परिचित मुस्कान लिए चुपचाप बैठे रहे। तभी कर्ण ने कहा, हे ब्राह्मण देव! आप निराश न हों, एक उपाय है मेरे पास। उसने अपने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट-काट कर ढेर लगा दी, फिर ब्राह्मण से कहा, आपको जितनी लकड़ी चाहिए, कृपया ले जाइए। कर्ण ने लकड़ी ब्राह्मण के घर पहुंचाने का प्रबंध भी कर दिया। ब्राह्मण कर्ण को आशीर्वाद देता हुआ लौट गया। पांडव व श्रीकृष्ण भी लौट आए। वापस आकर भगवान ने कहा, साधारण अवस्था में दान देना कोई विशेषता नहीं है, असाधारण परिस्थिति में किसी के लिए अपने सर्वस्व को त्याग देने का ही नाम दान है। अन्यथा हे युधिष्ठिर! चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे।


4.यौवन दान दे दिया : किंवदंती है कि एक बार कर्ण ने अपना यौवन ही दान दे दिया था। कथा अनुसार एक बार की बात है दुर्योधन के महल पर भगवान नारायण स्वयं विप्र के वेश में पधारे और दुर्योधन के भिक्षा मांगने लगे।

दुर्योधन के द्वार पर आकर एक विप्र ने अलख जगाई, 'नारायण हरि! भिक्षां देहि!'...
दुर्योधन ने स्वर्ण आदि देकर विप्र का सम्मान करना चाहा तो विप्र ने कहा, 'राजन! मुझे यह सब नहीं चाहिए।'
दुर्योधन ने आश्चर्य से पूछा, 'तो फिर महाराज कैसे पधारे?'
विप्र ने कहा, 'मैं अपनी वृद्धावस्था से दुखी हूं। मैं चारों धाम की यात्रा करना चाहता हूं, जो युवावस्था के स्वस्थ शरीर के बिना संभव नहीं है इसलिए यदि आप मुझे दान देना चाहते हैं तो यौवन दान दीजिए।'
दुर्योधन बोला, 'भगवन्! मेरे यौवन पर मेरी सहधर्मिणी का अधिकार है। आज्ञा हो तो उनसे पूछ आऊं?'
विप्र ने सिर हिला दिया। दुर्योधन अंत:पुर में गया और मुंह लटकाए लौट आया। विप्र ने दुर्योधन के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। वह स्वत: समझ गए और वहां से चलते बने। उन्होंने सोचा, अब महादानी कर्ण के पास चला जाए। कर्ण के द्वार पहुंच कर विप्र ने अलख जगाई, 'भिक्षां देहि!'
कर्ण तुरंत राजद्वार पर उपस्थित हुआ, विप्रवर! मैं आपका क्या अभीष्ट करूं?'
विप्र ने दुर्योधन से जो निवेदन किया था, वही कर्ण से भी कर दिया। कर्ण उस विप्र को प्रतीक्षा करने की विनय करके पत्नी से परामर्श करने अंदर चला गया लेकिन पत्नी ने कोई न-नुकुर नहीं की। वह बोली, 'महाराज! दानवीर को दान देने के लिए किसी से पूछने की जरूरत क्यों आ पड़ी? आप उस विप्र को नि:संकोच यौवन दान कर दें।' कर्ण ने अविलम्ब यौवन दान की घोषणा कर दी। तब विप्र के शरीर से स्वयं भगवान विष्णु प्रकट हो गए, जो दोनों की परीक्षा लेने गए थे।


5.सोने के दांतों का दान : कर्ण दान करने के लिए काफी प्रसिद्ध था। कहते हैं कि कर्ण जब युद्ध क्षेत्र में आखिरी सांस ले रहा था तो भगवान कृष्ण ने उसकी दानशीलता की परीक्षा लेनी चाही। वे गरीब ब्राह्मण बनकर कर्ण के पास गए और कहा कि तुम्हारे बारे में काफी सुना है और तुमसे मुझे अभी कुछ उपहार चाहिए। कर्ण ने उत्तर में कहा कि आप जो भी चाहें मांग लें। ब्राह्मण ने सोना मांगा।


कर्ण ने कहा कि सोना तो उसके दांत में है और आप इसे ले सकते हैं। ब्राह्मण ने जवाब दिया कि मैं इतना कायर नहीं हूं कि तुम्हारे  दांत तोड़ूं। कर्ण ने तब एक पत्थर उठाया और अपने दांत तोड़ लिए। ब्राह्मण ने इसे भी लेने से इंकार करते हुए कहा कि खून से सना हुआ यह सोना वह नहीं ले सकता। कर्ण ने इसके बाद एक बाण उठाया और आसमान की तरफ चलाया। इसके बाद बारिश होने लगी और दांत धुल गया
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अधिकार का सदुपयोग

एक हाथी था| वह मर गया तो धर्मराज के यहाँ पहुँचा| धर्मराज ने उससे पूछा- ‘अरे! तुझे इतना बड़ा शरीर दिया, फिर भी तू मनुष्य के वश में हो गया! तेरे एक पैर जितना था मनुष्य, उसके वश में तू हो गया!’ वह हाथी बोला-‘महाराज! यह मनुष्य ऐसा ही है|

बड़े-बड़े इसके वश में हो जाते हैं!’ धर्मराज ने कहा-‘हमारे यहाँ तो अनगिनत आदमी आते हैं!’ हाथी ने जवाब दिया-‘आपके यहाँ मुर्दे आते हैं, जो जीवित आदमी आये तो पता लगे! धर्मराज ने दूतो से कहा-‘अरे! एक जीवित आदमी ले आओ|’ दूतों ने कहा-‘ठीक है’|

दूत घूमते ही रहते थे| गर्मी के दिनों में उन्होंने देखा कि छत के ऊपर एक आदमी सोया हुआ है| दूतों ने उसकी खाट उठा ली और ले चले| उस आदमीं की नींद खुली तो देखा कि क्या बात है! वह कायस्थ था| ग्रन्थ लिखा करता था| ग्रंथो में धर्मराज के दूतों के लक्षण आते हैं| उसने जेब से कागज और कलम निकली| कागज पर कुछ लिखा और जेब में रख लिया| उसने सोचा कि हम कुछ चीं-चपड़ करेंगे तो गिर जायेंगें, हड्डियाँ बिखर जायँगी! वह बेचारा खाट पर पड़ा रहा कि जो होगा, देखा जायगा|

सुबह होते ही दूत पहुँच गये| धर्मराज की सभा लगी हुई थी| दूतों ने खाट नीचे रखी| उस कायस्थ ने तुरन्त जेब से कागज निकाला और दूतों को दे दिया कि धर्मराज को दे दो| उस पर विष्णु भगवान् का नाम लिखा था| दूतों ने यह कागज धर्मराज को दे दिया| धर्मराज ने पत्र पढ़ा| उसमें लिखा था- ‘धर्मराज जी से नारायण की यथायोग्य| यह हमारा मुनीम आपके पास आता है| इसके द्वारा ही सब काम कराना|  दस्तखत-

नारायण, वैकुण्ठपुरी|

पत्र पढ़कर धर्मराज ने अपनी गद्दी छोड़ दी और बोले- ‘आइये महाराज! गद्दी पर बैठो|’ धर्मराज ने कायस्थ को गद्दी पर बैठा दिया कि भगवान् का हुक्म है|

अब दूत दूसरे आदमी को लाये| कायस्थ बोला-‘यह कौन है?’ दूत-महाराज! यह डाका डालने वाला है| बहुतों को लूट लिया, बहुतों को मार दिया| इसको क्या दण्ड दिया जाय?’ कायस्थ-‘इसको वैकुण्ठ में भेजो|’

‘यह कौन है?’

‘महाराज! यह दूध बेचने वाली है| इसने पानी मिलाकर दूध बेचा जिससे बच्चों के पेट बढ़ गये, वे बीमार हो गये| इसका क्या करें?’

‘इसको भी वैकुण्ठ में भेजो|’ ‘यह कौन है?

‘इसने झूठी गवाही देकर बेचारे लोगों को फँसा दिया| इसका क्या किया जाय?’

‘अरे, पूछते क्या हो? वैकुण्ठ में भेजो|’

अब व्यभिचारी आये, पापी आये, हिंसा करनेवाला आये, कोई भी आये, उसके लिए एक ही आज्ञा कि ‘वैकुण्ठ में भेजो|’ अब धर्मराज क्या करें? गद्दी पर बैठा मालिक जो कह रहा है, वही ठीक! वहाँ वैकुण्ठ में जाने वालों की कतार लग गयी| भगवान् ने देखा कि अरे! इतने लोग यहाँ कैसे आ रहे हैं? कहीं मृत्युलोक में कोई महात्मा प्रकट हो गये? बात क्या है, जो सभी को बैकुण्ठ में भेज रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? देखा कि ये तो धर्मराज के यहाँ से आ रहे हैं|

भगवान् धर्मराज के यहाँ पहुँचे|  भगवान् को देखकर सब खड़े हो गये| धर्मराज भी खड़े हो गये| वह कायस्थ भी खड़ा हो गया| भगवान् ने पूछा-‘धर्मराज! आपने सबको वैकुण्ठ भेज दिया, बात क्या है? क्या इतने लोग भक्त हो गये?’

धर्मराज-‘प्रभो! मेरा काम नहीं है| आपने जो मुनीम भेजा है, उसका काम है|’

भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘तुम्हे किसने भेजा?’

कायस्थ-‘आपने महाराज!’

‘हमने कैसे भेजा?’

‘क्या मेरे बाप के हाथ की बात है, जो यहाँ आता? आपने ही तो भेजा है| आपकी मर्जी के बिना कोई काम होता है क्या? क्या यह मेरे बल से हुआ है?’

‘ठीक है, तूने यह क्या किया?’

‘मैंने क्या किया महाराज?’

‘तूने सबको वैकुण्ठ में भेज दिया!’

‘यदि वैकुण्ठ में भेजना खराब काम है तो जितने संत-महात्मा हैं, उनको दण्ड दिया जाय! यदि यह खराब काम नहीं है तो उलाहना किस बात की? इस पर भी आपको यह पसंद न हो तो सब को वापस भेज दो| परन्तु भगवद्गीता में लिखा यह श्लोक आपको निकालना पड़ेगा-‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम’ ‘मेरे धाम में जाकर पीछे लौटकर कोई नहीं आता|

‘बात तो ठीक है| कितना ही बड़ा पापी हो, यदि वह वैकुण्ठ में चला जाय तो पीछे लौटकर थोड़े ही आयेगा! उसके पाप तो सब नष्ट हो गये| पर यह काम तूने क्यों किया?’

‘मैंने क्या किया महाराज? मेरे हाथ में जब बात आयेगी तो मै यही करूँगा, सबको वैकुण्ठ भेजूँगा| मैं किसी को दण्ड क्यों दूँ? मै जानता हूँ कि थोड़ी देर देने के लिए गद्दी मिली है, तो फिर अच्छा काम क्यों न करूँ? लोगों का उद्धार करना खराब काम है क्या?’

भगवान् ने धर्मराज से पूछा-‘धर्मराज! तुमने इसको गद्दी कैसे दे दी?

धर्मराज बोले-‘महाराज! देखिये, आपका कागज आया है| नीचे साफ-साफ आपके दस्तखत हैं|’

भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘क्यों रे, ये कागज मैंने कब दिया तेरे को?’

कायस्थ बोला-‘आपने गीता में कहा है-‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ ‘ मै सबके हृदय में रहता हूँ’; अतः हृदय से आज्ञा आयी कि कागज लिख दे तो मैंने लिख दिया| हुक्म तो आपका ही हुआ! यदि आप इसको मेरा मानते हैं तो गीता में से उपर्युक्त बात निकाल दीजिये!’

भगवान् ने कहा-‘ठीक|’ धर्मराज से पूछा-‘अरे धर्मराज! बात क्या है? यह कैसे आया?’

धर्मराज बोले-‘महाराज! कैसे क्या आया, आपका पुत्र ले आया!’ दूतों से पूछा-‘यह बात कैसे हुई?’

दूत बोले-‘महाराज! आपने ही तो एक दिन कहा था कि एक जीवित आदमी लाना|’

धर्मराज-‘तो वह यही है क्या? अरे, परिचय तो कराते!’

दूत-‘हम क्या परिचय कराते महाराज! आपने तो कागज लिया और इसको गद्दी पर बैठा दिया| हमने सोचा कि परिचय होगा, फिर हमारी हिम्मत कैसे होती बोलने की?’

हाथी वहाँ खड़ा सब देख रहा था, बोला-‘जै रामजी की! आपने कहा था  कि तू कैसे आदमी के वश में हो गया? मैं क्या वश में हो गया, वश में तो धर्मराज हो गये और भगवान् हो गये! यह काले माथेवाला आदमी बड़ा विचित्र है महाराज! यह चाहे तो बड़ी उथल-पुथल कर दे! यह तो खुद ही संसार में फँस गया!’

भगवान् ने कहा-‘अच्छा, जो हुआ सो हुआ, अब तो नीचे चला जा|’

कायस्थ बोला-‘गीता में आपने कहा है- ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’ ‘मेरे को प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं लेता’ तो बतायें, मैं आपको प्राप्त हुआ कि नहीं?

भगवान्-‘अछ भाई, तू चल मेरे साथ|’

कायस्थ-‘महाराज! केवल मैं ही चलूँ? हाथी पीछे रहेगा बेचारा? इसकी कृपा से ही तो मैं यहाँ आया| इसको भी तो लो साथ में!’

हाथी बोला-‘मेरे बहुत-से भाई यहीं नरकों में बैठे हैं, सबको साथ ले लो|’

भगवान् बोले-‘चलो भाई, सबको ले लो!’ भगवान् के आने से हाथी का भी कल्याण हो गया, कायस्थ का भी कल्याण हो गया और अन्य जीवों का भी कल्याण हो गया!

*यह कहानी तो कल्पित है, पर इसका सिद्धांत पक्का है कि अपने हाथ में कोई अधिकार आये तो सबका भला करो| जितना कर सको, उतना भला करो| अपनी तरफ से किसी का बुरा मत करो, किसी को दुःख मत दो| गीता का सिद्धांत है-‘सर्वभूतहिते रताः’ ‘प्राणिमात्र के हित में प्रीति हो’| अधिकार हो, पद हो, थोड़े ही दिन रहने वाला है| सदा रहने वाला नहीं है| इसलिये सबके साथ अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो


*मित्रों, आप भी अपने जीवन की प्राथमिकताओं पर ध्यान देते हुए जीवन के लक्ष्य हासिल करें ।*



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19 ऊंट की कहानी


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एक गाँव में एक व्यक्ति के पास 19 ऊंट थे।

एक दिन उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी।

मृत्यु के पश्चात वसीयत पढ़ी गयी। जिसमें लिखा था कि:

मेरे 19 ऊंटों में से आधे मेरे बेटे को,19 ऊंटों में से एक चौथाई मेरी बेटी को, और 19 ऊंटों में से पांचवाँ हिस्सा मेरे नौकर को दे दिए जाएँ।

सब लोग चक्कर में पड़ गए कि ये बँटवारा कैसे हो ?

19 ऊंटों का आधा अर्थात एक ऊँट काटना पड़ेगा, फिर तो ऊँट ही मर जायेगा। चलो एक को काट दिया तो बचे 18 उनका एक चौथाई साढ़े चार- साढ़े चार. फिर?

सब बड़ी उलझन में थे। फिर पड़ोस के गांव से एक बुद्धिमान व्यक्ति को बुलाया गया।

वह बुद्धिमान व्यक्ति अपने ऊँट पर चढ़ कर आया, समस्या सुनी, थोडा दिमाग लगाया, फिर बोला इन 19 ऊंटों में मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो।

सबने सोचा कि एक तो मरने वाला पागल था, जो ऐसी वसीयत कर के चला गया, और अब ये दूसरा पागल आ गया जो बोलता है कि उनमें मेरा भी ऊँट मिलाकर बाँट दो। फिर भी सब ने सोचा बात मान लेने में क्या हर्ज है।

19+1=20 हुए।

20 का आधा 10, बेटे को दे दिए।

20 का चौथाई 5, बेटी को दे दिए।

20 का पांचवाँ हिस्सा 4, नौकर को दे दिए।

10+5+4=19

बच गया एक ऊँट, जो बुद्धिमान व्यक्ति का था...

वो उसे लेकर अपने गॉंव लौट गया।

इस तरह 1 उंट मिलाने से, बाकी 19 उंटो का बंटवारा सुख, शांति, संतोष व आनंद से हो गया।

सो हम सब के जीवन में भी 19 ऊंट होते हैं।

5 ज्ञानेंद्रियाँ
(आँख, नाक, जीभ, कान, त्वचा)

5 कर्मेन्द्रियाँ
(हाथ, पैर, जीभ, मूत्र द्वार, मलद्वार)

5 प्राण
(प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान)

और

4 अंतःकरण
(मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)

कुल 19 ऊँट होते हैं।

सारा जीवन मनुष्य इन्हीं 19 ऊँटो के बँटवारे में उलझा रहता है।

और जब तक उसमें मित्र रूपी ऊँट नहीं मिलाया जाता यानी के दोस्तों के साथ.... सगे-संबंधियों के साथ जीवन नहीं जिया जाता, तब तक सुख, शांति, संतोष व आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।


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*आज का प्रेरक प्रसंग*



*चिड़िया ने राजा को सिखाई 4 ज्ञान की बात, फिर कहा मेरे पेट में दो हीरे हैं, तो...*


एक राजा के विशाल महल में एक सुंदर वाटिका थी, जिसमें अंगूरों की एक बेल लगी थी। वहां रोज एक चिड़िया आती और मीठे अंगूर चुन-चुनकर खा जाती और अधपके और खट्टे अंगूरों को नीचे गिरा देती।


माली ने चिड़िया को पकड़ने की बहुत कोशिश की पर वह हाथ नहीं आई। हताश होकर एक दिन माली ने राजा को यह बात बताई। यह सुनकर भानुप्रताप को आश्चर्य हुआ। उसने चिड़िया को सबक सिखाने की ठान ली और वाटिका में छिपकर बैठ गया।

जब चिड़िया अंगूर खाने आई तो राजा ने तेजी दिखाते हुए उसे पकड़ लिया। जब राजा चिड़िया को मारने लगा, तो चिड़िया ने कहा, 'हे राजन, मुझे मत मारो। मैं आपको ज्ञान की 4 महत्वपूर्ण बातें बताऊंगी।' राजा ने कहा, 'जल्दी बता।'

चिड़िया बोली, 'हे राजन, सबसे पहले, तो हाथ में आए शत्रु को कभी मत छोड़ो।' राजा ने कहा, 'दूसरी बात बता।' चिड़िया ने कहा, 'असंभव बात पर भूलकर भी विश्वास मत करो और तीसरी बात यह है कि बीती बातों पर कभी पश्चाताप मत करो।'


राजा ने कहा, 'अब चौथी बात भी जल्दी बता दो।' इस पर चिड़िया बोली, 'चौथी बात बड़ी गूढ़ और रहस्यमयी है। मुझे जरा ढीला छोड़ दें क्योंकि मेरा दम घुट रहा है। कुछ सांस लेकर ही बता सकूंगी।' चिड़िया की बात सुन जैसे ही राजा ने अपना हाथ ढीला किया, चिड़िया उड़कर एक डाल पर बैठ गई और बोली, 'मेरे पेट में दो हीरे हैं।'

यह सुनकर राजा पश्चाताप में डूब गया। राजा की हालत देख चिड़िया बोली, 'हे राजन, ज्ञान की बात सुनने और पढ़ने से कुछ लाभ नहीं होता, उस पर अमल करने से होता है। आपने मेरी बात नहीं मानी।

मैं आपकी शत्रु थी, फिर भी आपने पकड़कर मुझे छोड़ दिया। मैंने यह असंभव बात कही कि मेरे पेट में दो हीरे हैं फिर भी आपने उस पर भरोसा कर लिया। आपके हाथ में वे काल्पनिक हीरे नहीं आए, तो आप पछताने लगे।

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✍🏻  टीचर ने क्लास के सभी बच्चों को एक खूबसूरत टॉफ़ी दी और फिर एक अजीब बात कही

सुनो, बच्चों! आप सभी ने दस मिनट तक अपनी टॉफ़ी नहीं खानी है और ये कहकर वो क्लास रूम से बाहर चले गए।

कुछ पल के लिए क्लास में सन्नाटा छाया था, हर बच्चा उसके सामने पड़ी टॉफ़ी को देख रहा था और हर गुज़रते पल के साथ खुद को रोकना मुश्किल होरहा था। दस मिनट पूरे हुए और टीचर क्लास रूम में आ गए। समीक्षा की। पूरे वर्ग में सात बच्चे थे, जिनकी टॉफ़ीयां जूं की तूं थी,जबकि बाकी के सभी बच्चे टॉफ़ी खाकर उसके रंग और स्वाद पर टिप्पणी कर रहे थे। टीचर ने चुपके से इन सात बच्चों के नाम को अपनी डायरी में दर्ज कर दिए और नोट करने के बाद पढाना शुरू किया।

इस शिक्षक का नाम प्रोफेसर वाल्टर मशाल था।

कुछ वर्षों के बाद प्रोफेसर वाल्टर ने अपनी वही डायरी खोली और सात बच्चों के नाम निकाल कर उनके बारे में शोध शुरू कर दिया। एक लंबे संघर्ष के बाद, उन्हें पता चला कि सातों बच्चों ने अपने जीवन में कई सफलताओं को हासिल किया है और अपनी अपनी फील्ड के लोगों की संख्या में सबसे सफल है। प्रोफेसर वाल्टर ने अपने बाकी वर्ग के छात्रों की भी समीक्षा की और यह पता चला कि उनमें से ज्यादातर एक आम जीवन जी रहे थे, जबकी कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें सख्त आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों का सामना करना पड रहा था।

इस सभी प्रयास और शोध का परिणाम प्रोफेसर वाल्टर ने एक वाक्य में निकाला और वह यह था।

"जो आदमी दस मिनट तक धैर्य नहीं रख सकता, वह जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ सकता”

इस शोध को दुनिया भर में शोहरत मिली और इसका नाम "मार्श मेलो थ्योरी" रखा गया था क्योंकि प्रोफेसर वाल्टर ने बच्चों को जो टॉफ़ी दी थी उसका नाम "मार्श मेलो" था। यह फोम की तरह नरम थी।

 *इस थ्योरी के अनुसार दुनिया के* *सबसे सफल लोगों में कई* *गुणों के साथ एक गुण 'धैर्य'* *पाया जाता है, क्योंकि यह* *ख़ूबी इंसान के बर्दाश्त की* *ताक़त को बढ़ाती है,* *जिसकी बदौलत आदमी कठिन* *परिस्थितियों में निराश* *नहीं होता और वह एक* *असाधारण व्यक्तित्व बन* *जाता है।*

  •  *धैर्य ही जीवन का सार है*
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  *🔴प्रेरक-प्रसंग🔴*


एक अध्यापक अपने शिष्यों के साथ घूमने जा रहे थे | रास्ते में वे अपने शिष्यों के अच्छी संगत की महिमा समझा रहे थे | लेकिन शिष्य इसे समझ नहीं पा रहे थे | तभी अध्यापक ने फूलों से भरा एक गुलाब का पौधा देखा | उन्होंने एक शिष्य को उस पौधे के नीचे से तत्काल एक मिट्टी का ढेला उठाकर ले आने को  कहा |

जब शिष्य ढेला उठा लाया तो अध्यापक बोले – “ इसे अब सूंघो |”

शिष्य ने ढेला सूंघा और बोला – “ गुरु जी इसमें से तो गुलाब की बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है |”

तब अध्यापक बोले – “ बच्चो ! जानते हो इस मिट्टी में यह मनमोहक महक कैसे आई ? दरअसल इस मिट्टी पर गुलाब के फूल, टूट टूटकर गिरते रहते हैं, तो मिट्टी में भी गुलाब की महक आने लगी है जो की ये असर संगत का है और जिस प्रकार गुलाब की पंखुड़ियों की संगति के कारण इस मिट्टी में से गुलाब की महक आने लगी उसी प्रकार जो व्यक्ति जैसी संगत में रहता है उसमें वैसे ही गुणदोष आ जाते हैं |

*सीख- इस शिक्षाप्रद कहानी से सीख मिलती है कि हमें सदैव अपनी संगत अच्छी रखनी चाहिए |*


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पिकासो  चित्रकार  की कहानी

कासो (Picasso) स्पेन में जन्मे एक अति प्रसिद्ध चित्रकार थे। उनकी पेंटिंग्स दुनिया भर में करोड़ों और अरबों रुपयों में बिका करती थीं...!!_

_एक दिन रास्ते से गुजरते समय एक महिला की नजर पिकासो पर पड़ी और संयोग से उस महिला ने उन्हें पहचान लिया। वह दौड़ी हुई उनके पास आयी और बोली, 'सर, मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ। आपकी पेंटिंग्स मुझे बहुत ज्यादा पसंद हैं। क्या आप मेरे लिए भी एक पेंटिंग बनायेंगे...!!?'_

_पिकासो हँसते हुए बोले, 'मैं यहाँ खाली हाथ हूँ। मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं फिर कभी आपके लिए एक पेंटिंग बना दूंगा..!!'_

_लेकिन उस महिला ने भी जिद पकड़ ली, 'मुझे अभी एक पेंटिंग बना दीजिये, बाद में पता नहीं मैं आपसे मिल पाऊँगी या नहीं।'_

_पिकासो ने जेब से एक छोटा सा कागज निकाला और अपने पेन से उसपर कुछ बनाने लगे। करीब 10 मिनट के अंदर पिकासो ने पेंटिंग बनायीं और कहा, 'यह लो, यह मिलियन डॉलर की पेंटिंग है।'_

_महिला को बड़ा अजीब लगा कि पिकासो ने बस 10 मिनट में जल्दी से एक काम चलाऊ पेंटिंग बना दी है और बोल रहे हैं कि मिलियन डॉलर की पेंटिग है। उसने वह पेंटिंग ली और बिना कुछ बोले अपने घर आ गयी..!!_

_उसे लगा पिकासो उसको पागल बना रहा है। वह बाजार गयी और उस पेंटिंग की कीमत पता की। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह पेंटिंग वास्तव में मिलियन डॉलर की थी...!!_

_वह भागी-भागी एक बार फिर पिकासो के पास आयी और बोली, 'सर आपने बिलकुल सही कहा था। यह तो मिलियन डॉलर की ही पेंटिंग है।'_

_पिकासो ने हँसते हुए कहा,'मैंने तो आपसे पहले ही कहा था।'_

_वह महिला बोली, 'सर, आप मुझे अपनी स्टूडेंट बना लीजिये और मुझे भी पेंटिंग बनानी सिखा दीजिये। जैसे आपने 10 मिनट में मिलियन डॉलर की पेंटिंग बना दी, वैसे ही मैं भी 10 मिनट में न सही, 10 घंटे में ही अच्छी पेंटिंग बना सकूँ, मुझे ऐसा बना दीजिये।'_

_पिकासो ने हँसते हुए कहा, _'यह पेंटिंग, जो मैंने 10 मिनट में बनायी है_ ...

*_इसे सीखने में मुझे 30 साल का समय लगा है_।*

*_मैंने अपने जीवन के 30 साल सीखने में दिए हैं ..!!*

*तुम भी दो, सीख जाओगी..!!_*

_वह महिला अवाक् और निःशब्द होकर पिकासो को देखती रह गयी...!!_

*_एक अध्यापक को 40 मिनट के लेक्चर की जो तनख्वाह दी जाती है ।_*

_वो इस कहानी को बयां करती है। एक अध्यापक के एक वाक्य के पीछे उसकी सालों की मेहनत होती है ।_

_समाज समझता है कि बस बोलना ही तो होता है अध्यापक को मुफ्त की नौकरी है!!!_

*"ये मत भूलिए कि आज विश्व मे जितने भी सम्मानित पदों पर लोग आसीन हैं, उनमें से अधिकांश किसी न किसी अध्यापक की वजह से ही पहुँचे हैं."*

*_"और हाँ, अगर आप भी अध्यापक की तनख्वाह को मुफ़्त की ही समझते हैं तो एक बार 40 मिनट का प्रभावशाली और अर्थपूर्ण लेक्चर देकर दिखा दीजीये, आपको अपनी क्षमता का एहसास हो जाएगा._"*

Dedicated To All Teachers

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चावल का एक दाना



*शोभित एक मेधावी छात्र था। उसने हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा में पूरे जिले में टॉप किया था। पर इस सफलता के बावजूद उसके माता-पिता उसे खुश नहीं थे। कारण था पढाई को लेकर उसका घमंड ओर* अपने* *बतमीज से बात न करना। वह अक्सर ही लोगों से ऊंची आवाज़ मे बात किया करता और अकारण ही उनका मजाक उड़ा देता। खैर दिन बीतते गए और देखते-देखते शोभित स्नातक भी हो गया।*

*स्नातक होने के बाद सोभित नौकरी की खोज में निकला| प्रतियोगी परीक्षा पास करने के बावजूद उसका इंटरव्यू में चयन नहीं हो पाता था| शोभित को लगा था कि अच्छे अंक के दम पर उसे आसानी से नौकरी मिल जायेगी पर ऐसा हो न सका| काफी प्रयास के बाद भी वो सफल ना हो सका| हर बार उसका घमंड, बात करने का तरीका इंटरव्यू लेने वाले को अखर जाता और वो उसे ना लेते| निरंतर मिल रही असफलता से शोभित हताश हो चुका था , पर अभी भी उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे अपना व्यवहार बदलने की आवश्यता है।*



*एक दिन रस्ते में शोभित की मुलाकात अपने स्कूल के प्रिय अध्यापक से हो गयी| वह उन्हें बहुत मानता था ओर अध्यापक भी उससे बहुत स्नेह करते थे | सोभित ने अध्यापक को सारी बात बताई| चूँकि अध्यापक सोभित के वयवहार से परिचित थे, तो उन्होने कहा की कल तुम मेरे घर आना तब मैं तुम्हे इसका उपाय बताऊंगा|*

*शोभित अगले दिन मास्टर साहब के घर गया| मास्टर साहब घर पर चावल पका रहे थे| दोनों आपस में बात ही कर रहे थे की मास्टर साहब ने शोभित से कहा जाके देख के आओ की चावल पके की नहीं| शोभित अन्दर गया उसने अन्दर से ही कहा की सर चावल पक गए हैं, मैं गैस बंद कर देता हूँ| मास्टर साहब ने भी ऐसा ही करने को कहा|*

*अब सोभित और मास्टर साहब आमने सामने बैठे थे| मास्टर साहब शोभित की तरफ मुस्कुराते हर बोले –शोभित तुमने कैसे पता लगया की चावल पक गए हैं?*

*शोभित बोला ये तो बहुत आसान था| मैंने चावल का एक दाना उठाया और उसे चेक किया कि वो पका है कि नहीं ,वो पक चुका था तो मतलब चावल पक चुके हैं|*

*मास्टर जी गंभीर होते हुए बोले यही तुम्हारे असफल होने का कारण है|*

*शोभित उत्सुकता वश मास्टर जी की और देखने लगा|*

*मास्टर साहब समझाते हुए बोले की एक चावल के दाने ने पूरे चावल का हाल बयां कर दिया| सिर्फ एक चावल का दाना काफी है ये बताने को की अन्य चावल पके या नहीं| हो सकता है कुछ चावल न पके हों पर तुम उन्हें नहीं खोज सकते वो तो सिर्फ खाते वक्त ही अपना स्वाभाव बताएँगे|*

*इसी प्रकार मनुष्य कई गुणों से बना होता है, पढाई-लिखाई में अच्छा होना उन्ही गुणोँ में से एक है , पर इसके आलावा, अच्छा व्यवहार, बड़ों के प्रति* *सम्मान , छोटों की प्रति प्रेम , सकारात्मक दृष्टिकोण , ये भी मनुष्य के आवश्यक गुण हैं, और सिर्फ पढाई-लिखाई में अच्छा होना से कहीं ज्यादा ज़रुरी हैं।*

*तुमने अपना एक गुण तो पका लिया पर बाकियो की तऱफ ध्यान ही नहीं दिया। इसीलिए जब कोई इंटरव्यूवर तुम्हारा इंटरव्यू लेता है तो तुम उसे कहीं से पके और कहीं से कच्चे लगते हो , और अधपके चावलों की तरह ही कोई इस तरह के कैंडिडेट्स भी  पसंद नही करता।*

*शोभित को अपनी गलती का अहसास हो चुका था| वो अब मास्टर जी के यहाँ से नयी एनर्जी ले के जा रहा था|*

👉तो दोस्तों हमारे जीवन में भी कोई न कोई बुराई होती है, जो हो सकता है हमें खुद नज़र न आती हो पर सामने वाला बुराई तुरंत भाप लेता है| अतः हमें निरंतर यह प्रयास करना चाहिए कि हमारे गुणों से बना चावल का एक-एक दाना अच्छी तरह से पका हो, ताकि कोई हमें कहीं से चखे उसे हमारे अन्दर पका हुआ दाना ही मिले।*



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🌻 💦 🦚
*सुखी जीवन का रहस्य*

एक बार यूनान के मशहूर दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गये।
वहां उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई।
दोनों आपस में काफी घुल मिल गये।
वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गये
भरा-पूरा परिवार था उनका.,
घर में बहु-बेटे, पौत्र-पौत्रियां, सभी थे।

सुकरात ने वृद्ध से पूछा-
“आपके घर में तो सुख-समृद्धि का वास है।
वैसे अब आप करते क्या हैं.?"

इस पर वृद्ध ने कहा-
“अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता।
ईश्वर की दया से हमारा अच्छा कारोबार है ,
जिसकी सारी जिम्मेदारियां अब बेटों को सौंप दी हैं।
घर की व्यवस्था हमारी बहुयें संभालती हैं।
इसी तरह जीवन चल रहा है।"

यह सुनकर सुकरात बोले-
"किन्तु इस वृद्धावस्था में भी आपको कुछ तो करना ही पड़ता होगा।
आप बताइये कि बुढ़ापे में आपके इस सुखी जीवन का रहस्य क्या है.?"

वह वृद्ध सज्जन मुस्कुराये और बोले~-
“मैंने अपने जीवन के इस मोड़ पर एक ही नीति को अपनाया है..,
कि दूसरों से अधिक अपेक्षायें मत पालो ,
और जो मिले, उसमें संतुष्ट रहो।
मैं और मेरी पत्नी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व
अपने बेटे- बहुओं को सौंपकर निश्चिंत हैं।
अब वे जो कहते हैं, वह मैं कर देता हूं।
और जो कुछ भी खिलाते हैं, खा लेता हूं।
अपने पौत्र- पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूं।
मेरे बच्चे जब कुछ भूल करते हैं,
तब भी मैं चुप रहता हूं।
मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता।
पर जब कभी वे मेरे पास सलाह-मशविरे के लिए आते हैं.,
तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखते हुए.,
उनके द्वारा की गई भूल से उत्पन्न् दुष्परिणामों की ओर सचेत कर देता हूं।
अब वे मेरी सलाह पर कितना अमल करते हैं..
या नहीं करते हैं.,
यह देखना और अपना मन व्यथित करना मेरा काम नहीं है।
वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, मेरा यह आग्रह नहीं होता।
परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं ,
तो मैं चिंतित नहीं होता।
उस पर भी यदि वे मेरे पास पुन: आते हैं तो..
मैं पुन: सही सलाह देकर उन्हें विदा करता हूं।

बुजुर्ग सज्जन की यह बात सुन कर सुकरात बहुत प्रसन्न हुये।
उन्होंने कहा-
“इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए.,
यह आपने सम्यक समझ लिया है।

👇🏽
यह कहानी सबके लिए है।
अगर आज आप बूढ़े नही हैं तो कल अवश्य होंगे।
इसलिए आज बुज़ुर्गों की--
*'इज़्ज़त' और 'मदद' करें*
जिससे कल कोई आपकी भी...
'मदद' और 'इज़्ज़त' करे।

याद रखें ...
जो-- आज दिया जाता है ,
वही कल प्राप्त होता है।
*अपनी वाणी में सुई भले ही रखो ,*
*पर उसमें धागा जरूर डालकर रखो ,*
ताकि सुई केवल छेद ही न करे.,
आपस में माला की तरह जोडकर भी रखे।

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हिन्दी कहानी-माँ की सीख
ईश्वरचंद विद्यासागर के बचपन की यह एक सच्ची घटना है। एक सवेरे उनके घर के द्वार पर एक भिखारी आया। उसको हाथ फैलाये देख उनके मन में करुणा उमड़ी। वे तुरंत घर के अंदर गए और उन्होंने अपनी माँ से कहा कि वे उस भिखारी को कुछ दे दें। माँ के पास उस समय कुछ भी नहीं था सिवाय उनके कंगन के। उन्होंने अपना कंगन उतारकर ईश्वरचंद विद्यासागर के हाथ में रख दिया और कहा-” जिस दिन तुम बड़े हो जाओगे, उस दिन मेरे लिए दूसरा बनवा देना अभी इसे बेचकर जरूरतमंदों की सहायता कर दो।”

बड़े होने पर ईश्वरचंद विद्यासागर ने अपनी पहली कमाई से अपनी माँ के लिए सोने के कंगन बनवाकर ले गए और उन्होंने माँ से कहा- माँ! आज मैंने बचपन का तुम्हारा कर्ज उतार दिया । उनकी माँ ने कहा- “बेटे! मेरा कर्ज तो उस दिन उतर पायेगा, जिस दिन किसी और जरूरतमंद के लिए मुझे ये कंगन दोबारा नहीं उतारने होंगे। “

माँ की सीख ईश्वरचंद विद्यासागर के दिल को छू गयीं और उन्होंने प्रण किया कि वे अपना जीवन गरीब-दुखियों की सेवा करने और उनके कष्ट हरने में व्यतीत करेंगे और उन्होंने अपना सारा जीवन ऐसा ही किया।

महापुरूषों के जीवन कभी भी एक दिन में तैयार नहीं होते। अपना व्यक्तित्व गढ़ने के लिए वे कई कष्ट और कठिनाइयों के दौर से गुजरते हैं और हर महापुरूष का जीवन कहीं न कहीं अपनी माँ की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित रहता है।
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कहानी- जो होता है वो अच्छे के लिए होता है |
💫✨💥🌷🙏🌷

*एक  व्यक्ति  का  दिन  बहुत खराब गया उसने  रात  को ईश्वर  से फ़रियाद की.*
*व्यक्ति ने कहा,*

' *भगवान, ग़ुस्से  न  हों  तो  एक  प्रश्न पूछूँ ?*

भगवान  ने  कहा,
'पूछ, जो  पूछना  हो  पूछ;....?

*व्यक्ति  ने  कहा,*
' *भगवान, आपने  आज  मेरा  पूरा  दिन एकदम  खराब  क्यों  किया ?*

भगवान हँसे ......
पूछा, पर  हुआ  क्या ?

*व्यक्ति  ने  कहा,*
' *सुबह  अलार्म  नहीं  बजा, मुझे  उठने में  देरी  हो  गई......'*

भगवान  ने  कहा, अच्छा  फिर.....'

*व्यक्ति  ने  कहा,*
*देर  हो  रही  थी,उस पर  स्कूटर बिगड़  गया. मुश्किल  से   रिक्शा मीली .'*

भगवान  ने  कहा, अच्छा  फिर......!'

*व्यक्ति  ने  कहा,*
*टिफ़िन  ले  नहीं  गया  था, वहां केन्टीन   बंद  थी....एक  वडा पाव खाकर दिन  निकाला,*

भगवान  केवल  हँसे.......

*व्यक्ति  ने  फ़रियाद  आगे  चलाई , 'मुझे बहुत ही काम  का  एक   का  फ़ोन आने वाला था  और  फ़ोन ही हैंग होकर  बंद  हो  गया ;*

भगवान  ने  पूछा.....' अच्छा फिर....'

*व्यक्ति  ने  कहा,*
*विचार  किया  कि  जल्दी  घर  जाकर AC  चलाकर  सो  जाऊं , पर  घर पहुँचा  तो  लाईट  गई  थी .*

भगवान.... सब  तकलीफें  मुझे  ही. ऐसा  क्यों  किया  मेरे साथ ?

*भगवान  ने  कहा,*
' देख , मेरी  बात  ध्यान  से  सुन .
आज  तुझपर  कोई  आफ़त  थी.
मेरे  देवदूत  को  भेजकर  मैंने रुकवाई .  अलार्म  बजे  ही  नहीं  ऐसा किया .
स्कूटर   से  एक्सीडेंट  होने का  डर  था  इसलिए  स्कूटर  बिगाड़ दिया . केन्टीन  में  खाने  से  फ़ूड पोइजन  हो  जाता .

फ़ोन  पर  बड़ी  काम  की  बात  करने वाला  आदमी  तुझे  बड़े  घोटाले  में फँसा  देता . इसलिए  फ़ोन   बंद  कर दिया .

तेरे  घर  में  आज  शार्ट  सर्किट  से आग  लगती, तू  सोया  रहता  और तुझे  ख़बर  ही  नहीं  पड़ती . इसलिए लाईट  बंद  कर  दी !

*मैं  हूं  न .....,!*

मैंने  यह  सब  तुझे  बचाने  के  लिए किया;

*व्यक्ति  ने  कहा,*
*भगवान  मुझसे  भूल  हो  गई . मुझे माफ  किजीए . आज  के  बाद  फ़रियाद  नहीं  करूँगा ;*

भगवान  ने  कहा,
माफी  माँगने  की  ज़रूरत  नहीं , परंतु विश्वास  रखना  कि  *मैं  हूं  न....,*

मैं  जो  करूँगा , जो  योजना  बनाऊँगा वो  तेरे  अच्छे  के  लिए  ही ।

जीवन  में  जो  कुछ  अच्छा - खराब होता  है  ; उसकी  सही  असर  लम्बे वक़्त  के  बाद  समझ  में  आती  है.

मेरे  कोई  भी  कार्य  पर  शंका  न  कर , श्रदा  रख .

जीवन  का  भार  अपने  ऊपर  लेकर घूमने  के  बदले  मेरे  कंधों  पर  रख दे .

*चिंता मत कर, चितंन कर*

*मैं  हूं  ना.....!*

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   जीवन मंत्र



एक गांव में संत अपने शिष्य के साथ रहते थे। संत अपनी बुद्धिमानी की वजह से क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध थे। लोग अपनी समस्याएं लेकर आश्रम आते और संत उन समस्याओं का समाधान बताते थे। एक दिन शिष्य ने संत से कहा कि गुरुजी हमारे आश्रम में काफी लोग आते हैं, सभी के जीवन में दुख हैं। दुखों को दूर करने और हमेशा खुश रहने का मंत्र क्या है? खुश रहने के लिए हमें क्या करना चाहिए।

गुरु ने शिष्य से कहा कि प्रश्न का उत्तर मैं तुम्हें वन में दूंगा। एक थोड़े बड़े पत्थर की ओर इशारा करते हुए गुरु ने कहा कि तुम ये पत्थर उठाओ और मेरे साथ चलो। शिष्य ने तुरंत ही आज्ञा मानते हुए पत्थर उठा लिया और गुरु के पीछे-पीछे चल दिया।
कुछ दूर चलने के बाद पत्थर के वजन की वजह से शिष्य का हाथ दर्द करने लगा, लेकिन वह चुपचाप गुरु के पीछे चलता रहा। थोड़ी देर बाद हाथ का दर्द और बढ़ गया, लेकिन उसने गुरु के कुछ नही बोला। पत्थर उठाकर थोड़ी देर और चलने के बाद हाथ का दर्द असहनीय हो गया। शिष्य ने कहा कि गुरुजी अब मैं ये पत्थर और नहीं उठा सकता। गुरु बोले कि ठीक ये पत्थर यहीं रख दो।

पत्थर रखते ही शिष्य को राहत मिली। गुरु ने कहा कि बस यही खुश रहने का मंत्र है। शिष्य बोला कि गुरुजी मैं आपकी बात नहीं समझा।

गुरु ने समझाया कि जब तक हम दुखों का बोझ उठाए रहेंगे, हमें दुख और निराशा का ही सामना करना पड़ेगा। हमेशा खुश रहना चाहते हैं तो दुख देने वाली बातों को भूलकर आगे बढ़ना चाहिए। दुख के बोझ को जल्दी से जल्दी छोड़ देंगे तो हमेशा खुश रहेंगे। शिष्य को गुरु की बात समझ आ गई।


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 जैसी करनी वैसी, भरनी
गाँव में एक किसान रहता था जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था..

एक दिन बीवी ने उसे मक्खन तैयार करके दिया वो उसे बेचने के लिए अपने गाँव से शहर की तरफ रवाना हुवा..
वो मक्खन गोल पेढ़ो की शकल मे बना हुआ था और हर पेढ़े का वज़न एक किलो था..

शहर मे किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार को बेच दिया,और दुकानदार से चायपत्ती,चीनी,तेल और साबुन वगैरह खरीदकर वापस अपने गाँव को रवाना हो गया..
किसान के जाने के बाद -
 दुकानदार ने मक्खन को फ्रिज़र मे रखना शुरू किया.....उसे खयाल आया के क्यूँ ना एक पेढ़े का वज़न किया जाए, वज़न करने पर पेढ़ा सिर्फ ९००ग्राम का निकला, हैरत और निराशा से उसने सारे पेढ़े तोल डाले मगर किसान के लाए हुए सभी पेढ़े ९००-९०० ग्राम के ही निकले।
अगले हफ्ते फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज़ पर चढ़ा..
दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए कहा: दफा हो जा, किसी बे-ईमान और धोखेबाज़ शख्स से कारोबार करना.. पर मुझसे नही।
९०० ग्राम.मक्खन को पूरा एक किलो कहकर बेचने वाले शख्स की वो शक्ल भी देखना गवारा नही करता..
किसान ने बड़ी ही "विनम्रता" से दुकानदार से कहा "मेरे भाई मुझसे नाराज  ना हो हम तो गरीब और बेचारे लोग है,
हमारी माल तोलने के लिए बाट (वज़न) खरीदने की हैसियत कहाँ" आपसे जो एक किलो चीनी लेकर जाता हूँ उसी को तराज़ू के एक पलड़े मे रखकर दूसरे पलड़े मे उतने ही वज़न का मक्खन तोलकर ले आता हूँ।
 जो हम दुसरो को देंगे,   वहीं लौट कर आयेगा...
    चाहे वो इज्जत, सम्मान हो, या फिर धोखा...!

kahaniya hindi,kahaniya in hindi,hindi me kahaniya,hindi mein kahani,kahaniya hindi तीन गेंदें

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प्रेरक प्रसंग
कहानी-तीन गेंदें

संदीप परेशान होकर अपने गुरु के पास जाता है और कहता है-

गुरुजी आपने हमेशा समझाया है कि मेहनत और लगन से काम करते रहो सफलता मिलती रहेगी. मैं मेहनत और लगन से काम कर रहा हूं मुझे सफलता भी मिल रही है लेकिन उस सफलता के साथ जो खुशी जुड़ी होती है…या सुकून जुड़ा होता है वह मुझे नहीं मिल रहा. मेरा बेटा एक बड़े स्कूल में पढ़ रहा है , मैं एक महंगा घर भी खरीद चुका हूं आपके बताए मेहनत के रास्ते पर चल रहा हूं, लेकिन खुश नहीं हूं! गुरुजी में खुश कैसे रहू कृपया मेरी मदद कीजिए.

गुरुजी मुस्कुराते हुए अंदर कमरे में गए और अपने हाथ में तीन गेंद लेकर आए जिसमें से-

एक कांच की गेंद थी
एक रबड़ की गेंद थी
एक चीनी मिट्टी की
गुरुजी ने उन गेंदों को संदीप के हाथों में दिया और कहा, “तुम इन गेंदों को लगातार एक के बाद एक हवा में उछालते रहो और किसी भी समय कम से कम 1 गेंद हवा में जरूर होनी चाहिए.”

संदीप थोड़ा हैरान तो हुआ लेकिन गुरुजी की बात मानता चला गया. उसने चुपचाप तीनों गेंद उठायीं और एक के बाद एक हवा में उछालने लगा.

कुछ देर तक तो वह बैलेंस बना पाया लेकिन जल्द ही उसका संतुलन बिगड़ने लगा. उसने जैसे-तैसे कांच और रबड़ की गेंद तो पकड़ ली पर अब वह चीनी मिट्टी की गेंद पकड़ता तो कोई न कोई- गेंद नीचे गिर जाती.

अब ऐसे में उसने तेजी से निर्णय लिया और रबड़ की गेंद को हाथ से छोड़ कर चीनी मिट्टी वाली गेंद  पकड़ ली, क्योंकि वह उन तीनो बालों में सबसे कीमती थी और रबड़ की गेंद नीचे गिर कर भी टूटती नहीं.

मतलब रबड़ की गेंद फेंकते हुए उसने कांच की और चीनी मिट्टी की गेंद को बचा लिया. पर फिर भी वह निराश था कि वह गुरुजी का दिया काम ढंग से नहीं कर पाया.

गेंद गिरते ही वह गुरुजी की ओर पलटा, उसने देखा कि गुरुजी मुस्कुरा रहे .

गुरुजी उसके पास आए और उससे पूछा, “बेटा बताओ तुमने रबड़ की गेंद को क्यों गिरने दिया? कांच की या चीनी मिट्टी वाली गेंद को क्यों नहीं?

तब संदीप ने गुरुजी से बोला, “गुरुजी चीनी मिट्टी वाली गेंद सबसे ज्यादा कीमती थी इसलिए मैंने उसको पकड़ने की सोची और अगर कांच की या चीनी मिट्टी की बोल नीचे गिर जाती तो वो टूट जाती… इसीलिए मैंने इन दोनों को नहीं छोड़ा, बल्कि रबड़ की गेंद छोड़ दी क्योंकि रबड़ की गेंद गिरने पर कोई नुकसान नहीं होता.

गुरुजी उसका जवाब सुनते हुए फिर मुस्कुराए और बोले बेटा तुमने अपनी समस्या का समाधान खुद ही ढूंढ लिया यह तीनों गेंदों तुम्हारे जीवन की प्राथमिकताओं की तरह हैं.

यह चीनी मिट्टी वाली गेंद तुम, तुम्हारे परिवार, तुम्हारी सोच और तुम्हारी भावनाओं की तरह हैं.
यह कांच का बाल तुम्हारा काम, तुम्हारी नौकरी तुम्हारे पैसे तुम्हारे सुख सुविधाओं के साधन हैं.
और यह रबड़ की गेंद तुम्हारी उन चीजों की तरह है जो अगर तुम्हारी जिंदगी में ना भी हो तब भी तुम आराम से जी सकते हो. जैसे कि तुम्हारा महंगा मोबाइल महंगी कार या कोई महंगी घड़ी या फिर महंगे शौक.
तुमने अपनी जिंदगी में कांच की गेंद और रबड़ की गेंद दोनों को महत्व दिया. तुमने एक से एक महंगी चीजें इकट्ठा कर लीं, भौतिकता की चकाचौंध में तुम इतना खो गए कि अपने परिवार की तरफ, अपने रिश्तों की तरफ, यहाँ तक कि खुद अपनी भावनाओं की तरफ भी ध्यान नहीं दिया. इसीलिए आज तुम खुश नहीं हो.

मेहनत करते रहो आगे बढ़ते रहो लेकिन अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ठ रखो. जब भी मन परेशान हो जब भी किसी चीज को बैलेंस ना कर पाओ तो और मजबूरन कोई न कोई गेंद छोडनी पड़े तो रबड़ की गेंद छोड़ दो, खुशियां नहीं रुकेंगी.

पर आज तुम ही नहीं संदीप ज्यादातर लोग  रबड़ की गेंद को इतना मजबूती से पकड़ लेना चाहते  हैं कि चीनी मिट्टी और कांच की गेंद उनके हाथ से छूट ही जाती है.

काम के पीछे, पैसों के पीछे इतना भी मत भागो कि खुशियां पीछे छूट जाएं.

*मित्रों, आप भी अपने जीवन की प्राथमिकताओं पर ध्यान देते हुए जीवन के लक्ष्य हासिल करें ।*
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सत्य का साथ

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स्वामी विवेकानंद जी प्रारंभ से ही मेधावी छात्र थे और सभी लोग उनके व्यक्तित्व और वाणी से प्रभावित रहते थे | जब वह अपने साथी छात्रों से कुछ बताते तो सब मंत्रमुग्ध हो कर उन्हें सुनते थे |
एक दिन कक्षा में वो कुछ मित्रों को कहानी सुना रहे थे, सभी उनकी बातें सुनने में इतने मग्न थे की उन्हें पता ही नहीं चला की कब मास्टर जी कक्षा में आये और पढ़ाना शुरू कर दिया | मास्टर जी ने अभी पढ़ाना शुरू ही किया था कि उन्हें कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी | “कौन बात कर रहा है ?” मास्टर जी ने तेज आवाज़ में पूछा |
सभी छात्रों ने स्वामी जी और उनके साथ बैठे छात्रों की तरफ़ इशारा कर दिया | मास्टर जी क्रोधित हो गए | उन्होंने तुरंत उन छात्रों को बुलाया और पाठ से संबंधित प्रश्न पूछने लगे | जब कोई भी उत्तर नहीं दे पाया तब मास्टर जी ने स्वामी जी से वही प्रश्न किया, स्वामी जी तो मानो सब कुछ पहले से ही जानते हो |
उन्होनें आसानी से उस प्रश्न का उत्तर दे दिया | यह देख कर मास्टर जी को यकीन हो गया कि स्वामी जी पाठ पर ध्यान दे रहे थे और बाकी छात्र बात – चीत कर रहे थे |
फिर क्या था | उन्होंने स्वामी जी को छोड़ सभी को बेंच पर खड़े होने की सजा दे दी | सभी छात्र एक एक कर बेंच पर खड़े होने लगे | स्वामी जी ने भी यही किया | मास्टर जी बोले नरेन्द्र तुम बैठ जाओ ! नहीं सर, मुझे भी खड़ा होना होगा क्योंकि वो मैं ही था जो इन छात्रों से बात कर रहा था | स्वामी जी ने आग्रह किया | सभी उनकी सच बोलने की हिम्मत देख बहुत प्रभावित हुए |

*कहानी से सीख : इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि मार्ग कितना भी कठिन क्यों न हों | सदा सत्य का साथ देना चाहिए |*
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पाप और पुण्य का हिसाब 

एक बार देवर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ मृत्युलोक का भ्रमण कर रहे थे। गर्मियों के दिन थे। गर्मी की वजह से वह पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे। इतने में एक कसाई वहाँ से 25-30 बकरों को लेकर गुजरा। उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मोठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था – ‘शगालचंद सेठ।’ दुकानदार का बकरे पर ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो-चार घूँसे मार दिये। बकरा ‘बैंऽऽऽ…. बैंऽऽऽ…’ करने लगा और उसके मुँह में से सारे मोठ गिर पड़े।
फिर कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहा, “जब इस बकरे को तू हलाल करेगा तो इसकी मुंडी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है।” देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और जोर-से हँस पड़े। तुम्बरू पूछने लगा, “गुरुजी ! आप क्यों हँसे? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप दुःखी हो गये थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े। इसमें क्या रहस्य है?”
नारद जी ने कहा, “छोड़ो भी…. यह तो सब कर्मों का फल है, छोड़ो।”
“नहीं गुरुजी ! कृपा करके बताइये।”
“इस दुकान पर जो नाम लिखा है ‘शगालचंद सेठ’ – वह शगालचंद सेठ स्वयं यह बकरा होकर आया है। यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। सेठ मरकर बकरा हुआ है और इस दुकान से अपना पुराना सम्बन्ध समझकर इस पर मोठ खाने गया। उसके बेटे ने ही उसको मारकर भगा दिया। मैंने देखा कि 30 बकरों में से कोई दुकान पर नहीं गया फिर यह क्यों गया कमबख्त ? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना सम्बंध था। जिस बेटे के लिए शगालचंद सेठ ने इतना कमाया था, वही बेटा मोठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और गलती से खा लिये हैं तो मुंडी माँग रहा है बाप की।”
“इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही हैं कि अपने – अपने कर्मों का फल को प्रत्येक प्राणी को भोगना ही पड़ता है और इस जन्म के रिश्ते – नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता।”

*Moral of the story : अपने पाप ओर पुण्य का हिसाब इंसान को खुद ही भोगना है | इसलिए सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हज़ारों हाथों से बांटो।*

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सुखिया और दुखिया

बहुत समय पहले की बात है जंगल के करीब एक गाँव में दुखिया और सुखिया नाम के दो लकड़हारे रहते थे. एक सुबह जब वे जंगल में लकड़ियाँ काटने गए तो उनकी आँखे फटी की फटी रह गयी.

लकड़ी की तस्करी करने वाली गैंग ने बहुत सारे पेड़ काट दिए थे और बड़े-बड़े ट्रक्स में लकड़ियाँ भर ले गए थे.

ये देखते ही दुखिया क्रोधित हो गया, “देख सुखिया क्या किया उन तस्करों ने… मैं उन्हें छोडूंगा नहीं…. मैं गाँव के हर घर जाऊँगा और इस घटना की शिकायत करूँगा… क्या तुम भी मेरे साथ चलोगे…”

“तुम चलो मैं बाद में आता हूँ.”, सुखिया बोला.

“बाद में आता हूँ??? क्या मतलब है तुम्हारा इतनी बड़ी घटना हो गयी और तुम हाथ पे हाथ धरे बैठे रहोगे… चल के सबको इसके बारे में बताओगे नहीं?”, दुखिया हैरान होते हुए बोला.

“जो मन करे वो करो.. मैं तो चला…,

और फ़ौरन दुखिया गाँव के प्रधान के पास जा कर बोला, “आप यकीन करेंगे उन दुष्टों ने रातों-रात सैकड़ों पेड़ काट डाले… मैं कुछ नहीं जानता उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए….किसी भी तरह से उनका पता लगाइए और उन्हें पुलिस के हवाले करिए…”

और इसके बाद दुखिया घर-घर जाकर यही बात बताने लगा और साथ में सुखिया की भी शिकायत करने लगा कि इतना कुछ हो जाने पर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ा और वो इसके लिए कुछ भी नहीं कर रहा है.

गाँव वाले भी क्या करते उसके बात सुनते और ढांढस बंधा कर अपने-अपने काम में लग जाते.

ये सब करते-करते शाम हो गयी और दुखिया अपने घर लौट आया.

अगली सुबह वह फिर से सुखिया के पास गया और कहा, “आज मैं इस घटना की शिकायत करने कोतवाली जा रहा हूँ…क्या तुम नहीं चलोगे?”

“मैं चलना तो चाहता हूँ पर क्या हम दोपहर को नहीं चल सकते?”, सुखिया बोला.

“समझ गया… तुम टाल-मटोल कर रहे हो मैं अकेले ही चला जाता हूँ…”, और दुखिया गुस्से में वहां से निकल गया.

अगली सुबह दुखिया के दिमाग में आया कि इस घटना को लेकर गांधी चौक पर धरना दिया जाए…. और वह अपनी योजना लेकर सुखिया के घर पहंचा.

“खट-खट खट-खट”, दुखिया ने सुखिया को आवाज़ देते हुए दरवाजा खटखटाया

“बापू जंगल गए हैं!”, अंदर से आवाज़ आई.

दुखिया मन ही मन सोचने लगा कि ये सुखिया भी कितना पागल है… अब जब हमारे मतलब के पेड़ ही नहीं रहे तो वो जंगल में क्या करने गया है!

वह फ़ौरन सुखिया को बुलाने के लिए जंगल की ओर बढ़ गया.

वहां पहुँच कर उसने देखा कि सुखिया उस जगह को साफ़ कर उसमे नए पेड़ लगा रहा है.

दुखिया बोला, “ये क्या कर रहे हो? अभी बहुत से लोगों को इस घटना के बारे में पता नहीं चला है…. और तुम यहाँ नए पेड़ लगाने में समय बर्बाद कर रहे हो… क्यों कर रहे हो ऐसा?”

“क्योंकि बस शिकायत करने से पेड़ वापस नहीं आ जायेंगे!”, सुखिया बोला.

*मित्रों, कुछ बुरा होने के बाद जो काम सबसे आसान होता है वो है शिकायत करना. और शायद इसीलिए हर कोई इस आसान काम को करने में ही लगा रहता है. कुछ हद तक ऐसा करना सामान्य भी लगता है पर समस्या ये है कि हम बस यही करने में अपनी पूरी शक्ति… अपना पूरा ध्यान लगा देते हैं…हम ये नहीं सोचते की जो समस्या पैदा हुई है उसके समाधान में हम खुद क्या कर सकते हैं…*

*_क्या गली में कचरा फैलने पर हम खुद एक डस्टबिन लगा सकते हैं?_*

*_क्या जंगल कटने पर हम पेड़ लगा सकते हैं?_*

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सच्चा हीरा

एक राजा का दरबार लगा हुआ था। सर्दियों के दिन थे, इसीलिये राजा का दरबार खुले में बैठा था। पूरी आम सभा सुबह की धूप मे बैठी थीl

​​

महाराज ने सिंहासन के सामने एक मेज रखवा रखी थी। पंडित लोग दीवान आदि सभी दरबार में बैठे थे ।


राजा के परिवार के सदस्य भी बैठे थे।


उसी समय एक व्यक्ति आया और राजा से दरबार में मिलने की आज्ञां मांगी। प्रवेश मिल गया तो उसने कहा, मेरे पास दो वस्तुएँ हैं, बिलकुल एक जैसी लेकिन एक नकली है और एक असली, मै हर राज्य के राजा के पास जाता हूँ और उन्हें परखने का आग्रह करता हूँ, लेकिन कोई परख नही पाता, सब हार जाते है और मैं विजेता बनकर घूम रहा हूँ ।


अब आपके नगर मे आया हूँ।


राजा ने उसे दोनों वस्तुओं को पेश करने का आदेश दिया।


तो उसने दोनों वस्तुयें टेबल पर रख दीं।  बिल्कुल समान आकार समान रुप रंग, समान प्रकाश, सब कुछ नख शिख समान। राजा ने कहा, ये दोनों वस्तुएँ एक हैं, तो उस व्यक्ति ने कहा, हाँ दिखाई तो एक सी देती है लेकिन हैं भिन्न। इनमें से एक है बहुत कीमती हीरा और एक है काँच का टुकडा, लेकिन रूप रंग सब एक है। कोई आज तक परख नही पाया कि कौन सा हीरा है और कौन सा काँच? कोई परख कर बताये कि ये हीरा है या काँच। अगर परख खरी निकली तो मैं हार जाऊँगा और यह कीमती हीरा मै आपके राज्य की तिजोरी में जमा करवा दूँगा, यदि कोई न पहचान पाया तो इस हीरे की जो कीमत है उतनी धनराशि आपको मुझे देनी होगी। इसी प्रकार मैं कई राज्यों से जीतता आया हूँ।


राजा ने कई बार उन दोनों वस्तुओं को गौर से देखकर परखने की कोशिश की और अंत में हार मानते हुए कहा- मैं तो नहीं परख सकूंगा।


दीवान बोले- हम भी हिम्मत नही कर सकते, क्योंकि दोनो बिल्कुल समान है।
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सब हारे, कोई हिम्मत नही जुटा पाया। हारने पर पैसे देने पडेंगे, इसका किसी को कोई मलाल नहीं था क्योंकि राजा के पास बहुत धन था लेकिन राजा की प्रतिष्ठा गिर जायेगी, इसका सबको भय था।


कोई व्यक्ति पहचान नही पाया। आखिरकार पीछे थोडी हलचल हुई। एक अंधा आदमी हाथ मे लाठी लेकर उठा। उसने कहा, मुझे महाराज के पास ले चलो, मैंने सब बाते सुनी हैं और यह भी सुना कि कोई परख नहीं पा रहा है। एक अवसर मुझे भी दो। एक आदमी के सहारे वह राजा के पास पहुचा उसने राजा से प्रार्थना की- मैं तो जनम से अंधा हूँ फिर भी मुझे एक अवसर दिया जाये जिससे मैं भी एक बार अपनी बुद्धि को परखूँ और हो सकता है कि सफल भी हो जाऊँ और यदि सफल न भी हुआ तो वैसे भी आप तो हारे ही हैं।


राजा को लगा कि इसे अवसर देने मे कोई हर्ज नहीं है और राजा ने उसे अनुमति दे दी। उस अंधे आदमी को दोनों वस्तुएं उसके हाथ में दी गयी और पूछा गया कि इनमे कौन सा हीरा है और कौन सा काँच?


कहते हैं कि उस आदमी ने एक मिनट मे कह दिया कि यह हीरा है और यह काँच। जो आदमी इतने राज्यों को जीतकर आया था वह नतमस्तक हो गया और बोला सही है, आपने पहचान लिया! आप धन्य हैं।


अपने वचन के मुताबिक यह हीरा मैं आपके राज्य की तिजोरी मे दे रहा हूँ। सब बहुत खुश हो गये और जो आदमी आया था वह भी बहुत प्रसन्न हुआ कि कम से कम कोई तो मिला परखने वाला। राजा और अन्य सभी लोगो ने उस अंधे व्यक्ति से एक ही जिज्ञासा जताई कि, 'तुमने यह कैसे पहचाना कि यह हीरा है और वह काँच?'


उस अंधे ने कहा- सीधी सी बात है राजन, धूप में हम सब बैठे हैं, मैंने दोनो को छुआ। जो ठंडा रहा वह हीरा, जो गरम हो गया वह काँच।



यही बात हमारे जीवन में भी लागू होती है, जो व्यक्ति बात बात में अपना आप खो देता है, गरम हो जाता है और छोटी से छोटी समस्याओं में उलझ जाता है वह काँच जैसा है और जो विपरीत परिस्थितियों में भी सुदृढ़ रहता है और बुद्धि से काम लेता है वही सच्चा हीरा है।

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kahaniya hindi,kahaniya in hindi,hindi me kahaniya,hindi mein kahani,kahaniya hindiस्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग

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स्वामी विवेकानंद प्रेरक प्रसंग
एक बार स्वामी विवेकानंद रेल से कही जा रहे थे | वह जिस डिब्बे में सफर कर रहे थे, उसी डिब्बे में कुछ अंग्रेज यात्री भी थे | उन अंग्रेजो को साधुओं से बहुत चिढ़ थी | वे साधुओं की भर – पेट निंदा कर रहे थे | साथ वाले साधु यात्री को भी गाली दे रहे थे | उनकी सोच थी कि चूँकि साधू अंग्रेजी नहीं जानते, इसलिए उन अंग्रेजों की बातों को नहीं समझ रहे होंगे | इसलिए उन अंग्रेजो ने आपसी बातचीत में साधुओं को कई बार भला – बुरा कहा | हालांकि उन दिनों की हकीकत भी थी कि अंग्रेजी जानने वाले साधु होते भी नहीं थे |
रास्ते में एक बड़ा स्टेशन आया | उस स्टेशन पर विवेकानंद के स्वागत में हजारों लोग उपस्थित थे, जिनमे विद्वान् एवं अधिकारी भी थे | यहाँ उपस्थित लोगों को सम्बोधित करने के बाद अंग्रेजी में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर स्वामीजी अंग्रेजी में ही दे रहे थे | इतनी अच्छी अंग्रेजी बोलते देखकर उन अंग्रेज यात्रियों को सांप सूंघ गया , जो रेल में उनकी बुराई कर रहे थे | अवसर मिलने पर वे विवेकानंद के पास आये और उनसे नम्रतापूर्वक पूछा – आपने हम लोगों की बात सुनी | आपने बुरा माना होगा ?
स्वामीजी ने सहज शालीनता से कहा – ” मेरा मस्तिष्क अपने ही कार्यों में इतना अधिक व्यस्त था कि आप लोगों की बात सुनी भी पर उन पर ध्यान देने और उनका बुरा मानने का अवसर ही नहीं मिला |” स्वामीजी की यह जवाब सुनकर अंग्रेजो का सिर शर्म से झुक गया और उन्होंने चरणों में झुककर उनकी शिष्यता स्वीकार कर ली |

Moral of Story  :  इस शिक्षाप्रद कहानी से सीख मिलती है कि हमें सदैव अपने लक्ष्य पर फोकस करना चाहिए |

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