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तरबूज की कहानी..
मैं गोवा के पारा गाँव से हूँ इसलिए हमें पार्रिकर कहा जाता है। हमारा गाँव अपने तरबूजों के लिए प्रसिद्ध है। जब मैं छोटा था मेरे गाँव के किसान फसल के अंत में मई महीने में तरबूज खाने की प्रतियोगिता आयोजित करते थे।गाँव और आस पास के सभी बच्चे तरबूज खाने के लिए बुलाए जाते थे और उन्हें अधिक से अधिक जितना तरबूज वे खा सकते थे खाना होता था। वर्षों बाद मैं IIT मुम्बई इंजीनियरिंग पढ़ने आ गया। IIT करने के बाद मैं लगभग 6.5 वर्ष बाद जब में अपने गाँव पहुँचा। तब मैंने तरबूजों के खेत और बाजार तो देखे पर तरबूजे गायब थे और जो थोड़े बहुत बचे थे वह भी काफी छोटे थे।
मैं उन किसानों को देखने पहुँचा जो तरबूज खाने की प्रतियोगिताएँ आयोजित करते थे। अब यह जिम्मेदारी उनके बेटे देख रहे थे। लेकिन मुझे पहले से कुछ अंतर दिखाई दिया। पहले बुजुर्ग किसान हमें तरबूज खाने के बाद बीज थूकने के लिए कटोरी देते थे। एक शर्त यह भी होती थी कि तरबूज खाते समय कोई भी बीज कटना नहीं चाहिए।
वह हमें खाने के लिए अपने खेत के अच्छे से अच्छा, बड़े से बड़ा और मीठे से मीठा तरबूज देता थे। इस तरह से वह अपनी अगली फसल के लिए सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम बीज चुन लेते थे। अगली फसल के तरबूज और भी अच्छे, बड़े और मीठे होते थे। हम वास्तव में बिना वेतन के सर्वश्रेष्ठ बीज चयन करने वाले कुशल बाल श्रमिक होते थे। यह बात मुझे बाद में पता चली।
उनके बेटों को लगा कि बड़े और मीठे तरबूज बाजार में बेचने पर अधिक धन मिलेगा। इसलिए उन्होंने बड़े, मीठे और अच्छे तरबूज बेचने शुरू कर दिए और प्रतियोगिता में छोटे और कम मीठे तरबूज रखने शुरू कर दिए। इस प्रकार वर्ष प्रति वर्ष तरबूजे छोटे और छोटे होते गए। तरबूज की उत्पादकता एक वर्ष की होती है। इस प्रकार सात वर्ष में गोवा के पारा गाँव के सर्वश्रेष्ठ तरबूज विलुप्त हो गए।
मनुष्य में औसत उत्पादकता 25 वर्ष है। नस्ल परिवर्तन में लगभग 200 वर्ष लग जाते हैं। तो हम अपनी अगली पीढ़ियों को शिक्षित करने में क्या गलती कर रहे हैं इसका असर 200 वर्ष बाद पता चलेगा और निश्चित रूप से उसको सुधारने में भी।
जब तक हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षित एवं सुयोग्य अध्यापकों को स्थान नहीं देंगे हम विश्व में सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकते। हमें शिक्षा व्यवस्था में सर्वश्रेष्ठ लोगों को बिना भेदभाव के स्थान देना चाहिए। ताकि आने वाली पीढ़िया में सर्वश्रेष्ठ निकल कर आ सकें।
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